Thursday, October 13, 2011

facebook discussion: माता सीता का दूसरा वनवास........


  • सदियों से बड़े बड़े ज्ञानियों व धर्म के मर्मज्ञों द्वारा भगवान श्री राम को मर्यादा पुरुषोत्तम माना गया है. तो हम कुछ हद तक ये मान कर चल सकते हैं की इस episode में भी भगवान राम ने धर्म की पूरी मर्यादा रक्खी होगी. मगर कैसे? ये समझने वाली बात ह...
    ै. क्योंकि जब तक हमें वह बात पूरी तरह से समझ नहीं आ जायेगी ये शंका मन में रहेगी ही और ये सवाल या लांछन भी लगते रहेंगे की एक पुरुष प्रधान समाज ने या एक 'कानों के कच्चे राजा ने’ अपने सिंहासन व आराम के लिए अपनी पतिव्रता पत्नी का त्याग कर दिया.
    अयोध्या वापिस आने के बाद मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के पास क्या-क्या विकल्प थे?
    १. राजमहल में आने के बाद समाज के सवालों और शंकाओं को दर किनार कर राज भी रखते और माता सीता को भी साथ रखते, या
    २. माता सीता के प्रति अपना प्यार, श्रद्धा और जिम्मेवारी दिखाते हुए राज पाट को तज देते और माता सीता के साथ रहते, और या, जैसा कि उन्होंने किया
    ३. राज महल की जिम्मेवारियां निभाते और सीता माता को तज देते.

    विकल्प न.१ सबसे आसान और फायदे वाला होता मगर ये धर्म और समाज की सब मर्यादाओं का उलंघन होता. जैसा की बाद में प्रचलित भी हुआ, "Caesar's wife must be above suspicion" यानी राजा की पत्नी (या उसके सभी associates) भी गलत काम करने के शक के दायरे से बाहर होनी चाहिये. श्री राम राजा रहते और पूरी पवित्रता के बाबजूद उनकी रानी माता सीता पर कोई उंगली उठाता तो ये राज महल की गरिमा, sanctity, मर्यादा के खिलाफ होता. तो यह विकल्प तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम बिलकुल विकल्प मानते ही नहीं और इसे एक अधार्मिक, असामाजिक कृत्य की तरह मानते. यानी ये साफ़ था कि राजमहल और माता सीता अब साथ नहीं रह सकते थे. या तो श्रीराम व माता सीता दोनों साथ राजपाट से दूर रहते या फिर राम जी राज संभालते और सीता मैय्या दूर रहतीं.

    तो फिर दूसरा विकल्प था अपने निजी और पति धर्म का पालन करते और सीता माता के प्रति अपना आभार और प्रेम प्रकट करते हुए श्री राम राजपाट को त्याग देते और सीता माता के साथ रहते. मर्यादा कि कसौटी पर यह भी एक पूरी तरह से धर्मसम्मत कार्य होता और श्री राम तब भी मर्यादा पुरुषोत्तम ही कहलाये जाते.
    और इसी तरह से तीसरा विकल्प भी पूरी तरह धर्मसम्मत था. यानी राजधर्म का पालन करते हुए राजा को किसी भी ऐसे व्यक्ति से सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए जिस पर कोई भी, विपक्ष समेत, शक की उंगली उठा सके. एक बहुत लंबे समय सीता माता श्री राम के दुश्मन के कब्जे में रहीं तब, इस के बाबजूद कि खुद दुश्मनों ने माता सीता की पवित्रता के गुण गाये, समाज के लिए एक शंका का विषय था.

    श्रीराम के पास चुनने के लिए राजमहल और अपना निजी परिवार का विकल्प नहीं था, श्रीराम के सामने सवाल था अपनी निजी जिंदगी और १४ वर्षों तक उनके साथ रही उनकी पत्नी के प्रति उनके कर्तव्यों व जिम्मेवारी का तथा १४ साल तक उनके इन्तेज़ार में उम्मीदों के साथ उनका स्वागत करने वाली उनकी प्रजा के प्रति उनके कर्तव्यों व जिम्मेवारियों का. सवाल राजमहल के आराम का नहीं था सवाल राजमहल की power का नहीं था, सवाल था सिर्फ जिम्मेवारियों व कर्तव्यों का.
    चयन करना था सिर्फ माता सीता और पूरे देश की जनता के प्रति उनकी जिम्मेवारियों के बीच.

    और यहाँ पूरी जनता के सामने श्रीराम ने अपनी प्राणों से प्यारी माता सीता का त्याग करने का निर्णय लिया और एक उच्च कोटी का बलिदान दिया क्योंकि उनकी नज़र में १४ साल तक उनका इन्तेज़ार करने वाली जनता का प्यार, उम्मीदें, भावनाएं व कल्याण सर्वोपरि था. माता सीता को अलग कर माता सीता को जितना दुःख हुआ उस से कम दुःख भगवान राम को भी नहीं था मगर भारी मन से उन्होंने ये निर्णय लिया.
    मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम सच में एक आदर्श पुरुष थे.

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