Monday, October 24, 2011

facebook discussion: मूर्ति पूजा (IDOL WORSHIP) हम लोग परमात्मा की किसी विशेष मूर्ति के रूप में क्यों पूजा करते है?

Moorti, bells, conch, even temple etc are only aids and are very relevant at a particular stage and one has to out grow these symbols. Problem starts when we get stuck to these aids and symbols and refuse to rise above the same.
Swami Vivekanand once said, 'If a child doesn't go to temple, he should be condemned. But if an old man still goes to temple, he must be condemned too'. We have to evolve and understand when to leave these symbols.
20 October 2011


Why do we bow before an idol when we ourselves are the part of the almighty?...
Well as far as an idol is concerned it is relevant to certain extent. It is a stage in the spiritual journey. At a particular stage we outgrow such symbols and do not need them. But till that stage these idols are relevant. So if they are relevant then we bow just to show our respect, our belief.
Now, if we are part of God then why to bow?
We are part of God but in this form we are not god. We have to realize god through our deeds and thoughts. And till then we must strive to realize our aim and have full respect and full faith in God... in whatever form. And this bowing our head is only indicative of our respect for the almighty whose replica/symbol is this idol.
23 October 2011

Friday, October 21, 2011

facebook discussion: भय बिन होए न प्रीत

Fear is a base instinct. It manifests at the basic stage of anything. At basic stage of knowledge, growth, evolution etc. Fear is born out of ignorance and weakness only. And that can be overcome through knowledge and strengthening oneself. It vanishes as we gain awareness, strength etc.
In the initial stage may be love, affection or devotion is out of fear, as said by Goswami Tulsidas, but real love would survive only when there is no fear and only affection and understanding.
Based on this criteria, I agree with the view that "Bhagwan Ram ko koi bhay nahi tha". Yes he was concerned and cautious at times but there was no fear.
20 October 2011

Thursday, October 13, 2011

facebook discussion: माता सीता का दूसरा वनवास........


  • सदियों से बड़े बड़े ज्ञानियों व धर्म के मर्मज्ञों द्वारा भगवान श्री राम को मर्यादा पुरुषोत्तम माना गया है. तो हम कुछ हद तक ये मान कर चल सकते हैं की इस episode में भी भगवान राम ने धर्म की पूरी मर्यादा रक्खी होगी. मगर कैसे? ये समझने वाली बात ह...
    ै. क्योंकि जब तक हमें वह बात पूरी तरह से समझ नहीं आ जायेगी ये शंका मन में रहेगी ही और ये सवाल या लांछन भी लगते रहेंगे की एक पुरुष प्रधान समाज ने या एक 'कानों के कच्चे राजा ने’ अपने सिंहासन व आराम के लिए अपनी पतिव्रता पत्नी का त्याग कर दिया.
    अयोध्या वापिस आने के बाद मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के पास क्या-क्या विकल्प थे?
    १. राजमहल में आने के बाद समाज के सवालों और शंकाओं को दर किनार कर राज भी रखते और माता सीता को भी साथ रखते, या
    २. माता सीता के प्रति अपना प्यार, श्रद्धा और जिम्मेवारी दिखाते हुए राज पाट को तज देते और माता सीता के साथ रहते, और या, जैसा कि उन्होंने किया
    ३. राज महल की जिम्मेवारियां निभाते और सीता माता को तज देते.

    विकल्प न.१ सबसे आसान और फायदे वाला होता मगर ये धर्म और समाज की सब मर्यादाओं का उलंघन होता. जैसा की बाद में प्रचलित भी हुआ, "Caesar's wife must be above suspicion" यानी राजा की पत्नी (या उसके सभी associates) भी गलत काम करने के शक के दायरे से बाहर होनी चाहिये. श्री राम राजा रहते और पूरी पवित्रता के बाबजूद उनकी रानी माता सीता पर कोई उंगली उठाता तो ये राज महल की गरिमा, sanctity, मर्यादा के खिलाफ होता. तो यह विकल्प तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम बिलकुल विकल्प मानते ही नहीं और इसे एक अधार्मिक, असामाजिक कृत्य की तरह मानते. यानी ये साफ़ था कि राजमहल और माता सीता अब साथ नहीं रह सकते थे. या तो श्रीराम व माता सीता दोनों साथ राजपाट से दूर रहते या फिर राम जी राज संभालते और सीता मैय्या दूर रहतीं.

    तो फिर दूसरा विकल्प था अपने निजी और पति धर्म का पालन करते और सीता माता के प्रति अपना आभार और प्रेम प्रकट करते हुए श्री राम राजपाट को त्याग देते और सीता माता के साथ रहते. मर्यादा कि कसौटी पर यह भी एक पूरी तरह से धर्मसम्मत कार्य होता और श्री राम तब भी मर्यादा पुरुषोत्तम ही कहलाये जाते.
    और इसी तरह से तीसरा विकल्प भी पूरी तरह धर्मसम्मत था. यानी राजधर्म का पालन करते हुए राजा को किसी भी ऐसे व्यक्ति से सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए जिस पर कोई भी, विपक्ष समेत, शक की उंगली उठा सके. एक बहुत लंबे समय सीता माता श्री राम के दुश्मन के कब्जे में रहीं तब, इस के बाबजूद कि खुद दुश्मनों ने माता सीता की पवित्रता के गुण गाये, समाज के लिए एक शंका का विषय था.

    श्रीराम के पास चुनने के लिए राजमहल और अपना निजी परिवार का विकल्प नहीं था, श्रीराम के सामने सवाल था अपनी निजी जिंदगी और १४ वर्षों तक उनके साथ रही उनकी पत्नी के प्रति उनके कर्तव्यों व जिम्मेवारी का तथा १४ साल तक उनके इन्तेज़ार में उम्मीदों के साथ उनका स्वागत करने वाली उनकी प्रजा के प्रति उनके कर्तव्यों व जिम्मेवारियों का. सवाल राजमहल के आराम का नहीं था सवाल राजमहल की power का नहीं था, सवाल था सिर्फ जिम्मेवारियों व कर्तव्यों का.
    चयन करना था सिर्फ माता सीता और पूरे देश की जनता के प्रति उनकी जिम्मेवारियों के बीच.

    और यहाँ पूरी जनता के सामने श्रीराम ने अपनी प्राणों से प्यारी माता सीता का त्याग करने का निर्णय लिया और एक उच्च कोटी का बलिदान दिया क्योंकि उनकी नज़र में १४ साल तक उनका इन्तेज़ार करने वाली जनता का प्यार, उम्मीदें, भावनाएं व कल्याण सर्वोपरि था. माता सीता को अलग कर माता सीता को जितना दुःख हुआ उस से कम दुःख भगवान राम को भी नहीं था मगर भारी मन से उन्होंने ये निर्णय लिया.
    मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम सच में एक आदर्श पुरुष थे.

Saturday, October 8, 2011

fb discussion: भरत और लक्ष्मण मे कौन महान भाई था और क्यों ?

भाई का सवाल सच में बड़ा गूढ़ है. लक्ष्मण या भरत? चुनाव कठिन है. भगवान राम जब वन को चले तो भरत वहाँ मौजूद नहीं थे. लक्ष्मण जी थे और उन्होंने मौके पर बहुत बड़ा त्याग का उदाहरण देते हुए राजमहल को छोड़ श्री राम के साथ वन जाने का निर्णय लिया. मौके पर एक निर्णय लिया और पूरे १४ साल उसका पालन किया.
भरत ने अपनी वापसी पर श्री राम को वापिस लाने का निर्णय किया. श्री राम नहीं आये. भरत वापिस आये मगर उन्होंने राजपाट त्याग दिया.
भरत या लक्ष्मण दोनों ने त्याग किया. किसका त्याग बड़ा, या कहें मुश्किल था?

लक्ष्मण ने श्री राम का साथ पाने के लिए राजमहल का त्याग किया.
भरत ने श्री राम का साथ न पाने के साथ साथ राजपाट का भी त्याग किया.

लक्ष्मण अगर श्री राम का साथ न चुन कर राजमहल चुनते तो शायद जग में बुराई भी मिलती.
भरत यदि श्री राम के उपस्थित न होने पर राजपाट ग्रहण कर लेते तो भी राज्य के हित के नाम पर कोई उन्हें गलत नहीं कहता. मगर फिर भी उन्होंने राजपाट नहीं अपनाया.

इन हालातों के मद्दे नजर मैं मानता हूँ कि भरत का त्याग बड़ा था और दोनों भाइयों के बीच कोई प्रतियोगिता न होते हुए भी कहा जा सकता है कि भरत महान था.
7 October 2011

लक्ष्मण जी के पास एक बार निर्णय लेकर बदलने का option नहीं था पर भरत के पास तो हर सुबह एक नया मौका होता था राष्ट्रहित का सन्दर्भ दे कर राजपाट ग्रहण करने का मगर उन्होंने नहीं किया.
7 October 2011